US is Disappointed with Japan’s Decision to Join China! | Global Economic Power is Shifting
सोचिए अगर जापान जैसा देश जो अमेरिका का सालों पुराना साथी है अगर अब वह अमेरिका की बात मानने से इंकार कर दे तो क्या इसका मतलब है कि अमेरिका की ताकत अब खत्म हो रही है और अब तो जापान की सरकार खुद यह बोल रही है कि डोनाल्ड ट्रंप की ट्रेड डील्स दरअसल डील्स नहीं बल्कि धमकी और जबरदस्ती है। दुनिया अब दो हिस्सों में बंट रही है और इस बार सिर्फ खेल अरबों डॉलर की ट्रेड डिप्लोमेसी का है। जापान जो दशकों से अमेरिका का सबसे मजबूत रणनीतिक साझेदार था अब खुलकर उसके खिलाफ खड़ा हो गया है और इससे चीन को वो बढ़त मिल गई है जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। अब सबसे बड़ा सवाल यह है आखिर जापान ने अमेरिका से पल्ला क्यों झाड़ा? कैसे ट्रंप की ट्रेड पॉलिसी ने अब दोस्ती को दुश्मनी में बदल दिया है। यह दुनिया अब उतनी सीधी और स्थिर नहीं है जितना पहले हुआ करती थी। हालात इतने तेजी से बदल रहे हैं कि बड़े-बड़े रणनीतिकार भी भविष्यवाणी करने में चूक जा रहे हैं। और अब एक बार फिर चीन को एक जबरदस्त रणनीतिक बढ़त मिली है। जापान जो दशकों से अमेरिका का ताकतवर और स्थाई रणनीति साझेदार था, अब अचानक अपने पॉलिसीज के अंदर भयंकर मोड़ ला चुका है। जापान ने साफ-साफ संकेत दिए हैं कि वह अमेरिका के उन प्रयासों का हिस्सा नहीं रहेगा जो चीन के खिलाफ एक वैश्विक व्यापारी गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इसके पीछे असली वजह है जापान की आर्थिक वास्तविकता। क्योंकि चीन ना केवल जापान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है बल्कि जरूरी कच्चे माल और रिसोर्सेज की भी सप्लाई चाइना ही जापान को करता है। हालांकि अमेरिका ने औपचारिक रूप से जापान से कोई मांग नहीं रखी है। लेकिन अमेरिका की तैयारी को देखकर जापान ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया है कि वे अपने हितों से कोई समझौता नहीं करेगा। जापान की विदेश नीति में इन दिनों बड़े बदलाव देखने को मिल रहे हैं और वह ना सिर्फ हैरान करने वाले हैं बल्कि बहुत बड़े अंतरराष्ट्रीय ट्रेंड की ओर इशारा करते हैं। अब तक हम मानते थे कि जापान और अमेरिका के बीच रिश्ते काफी मजबूत और अटूट रहा है। जापान में आज भी अमेरिका के करीब 120 से ज्यादा सैन्य अड्डे मौजूद हैं। जो इस बात का प्रतीक है कि दोनों देशों के बीच रणनीतिक सहयोग बहुत गहरा है। लेकिन हाल के महीनों में जापान ने अमेरिका के कहे हर फैसले को मानने की नीति से थोड़ा हटना शुरू कर दिया है। और यह सबसे ज्यादा नजर आया है सेमीकंडक्टर और हाईटेक चिप्स के एक्सपोर्ट पर। जब अमेरिका ने चाइना के खिलाफ टेक्नोलॉजी एक्सपोर्ट पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की। खासकर सेमीकंडक्टर जैसे हाई एंड प्रोडक्ट पर तो दुनिया भर के सहयोगियों से यह उम्मीद की गई थी कि अमेरिका की लाइन फॉलो करें। लेकिन जापान ने इस पर पूरी तरह से सहमत होने से इंकार कर दिया। जापान ने साफ किया कि अमेरिका की हर रणनीति आंख मूंद कर नहीं मानेगा। खासकर तब जब बात उसके खुद के आर्थिक हितों की हो। यह कोई मामूली बात नहीं है क्योंकि यह वही जापान है जो दशकों से अमेरिका का सबसे करीबी एशियाई साझेदार रहा है। इस बदलते रुख के पीछे अमेरिका के व्यवहार और दबाव की राजनीति का एक बड़ा कारण है। खासकर ट्रंप प्रशासन ने जापान को व्यापार के मोर्चे पर बार-बार सार्वजनिक रूप से अपमानित किया और जबरदस्ती टेरिफ समझौतों के लिए दबाव डाला। तब जापान के भीतर ही भीतर यह आवाज उठने लगी कि अब अपनी नीति में बदलाव करना चाहिए। जापान के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने तो यहां तक कह दिया अमेरिका के साथ व्यापार वार्ता करना ऐसा है जैसा किसी गुंडे से जबरदस्ती पैसे वसूलना। यह भाषा जापानी डिप्लोमेसी के लिए बहुत असामान्य है। क्योंकि आमतौर पर जापान कूटनीतिक भाषा का प्रयोग करता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। जापानी अधिकारियों का मानना है कि अगर उन्होंने एक बार अमेरिका के अनुचित मांगों के आगे सिर झुका दिया तो यह एक खतरनाक परंपरा बन जाएगी जो भविष्य में जापान के लिए और ज्यादा नुकसानदायक साबित होगी। यही वजह है कि जापान खुलकर यह भी कह रहा है कि चीन के साथ अपने व्यापारिक रिश्तों को तोड़ना ना तो व्यवहारिक है ना ही समझदारी भरा। क्योंकि चीन सिर्फ एक बड़ा बाजार नहीं है बल्कि आज वह दुनिया के 120 से भी ज्यादा देशों के साथ सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। तो वह ना सिर्फ अपने व्यापारिक हितों का नुकसान पहुंचाएगा बल्कि वह खुद को एक ऐसी ग्लोबल चैन से काट लेगा जिससे जुड़कर उसकी इंडस्ट्री और टेक्नोलॉजी को फायदा मिलता है। इसी वजह से जापान अब अमेरिका की टेरिफ नीति का अंधा समर्थन करने को तैयार नहीं दिख रहा है। बल्कि इसके उलट वह धीरे-धीरे चीन की अगुवाई वाले आर्थिक ढांचे की ओर झुकता दिख रहा है। मार्च 2025 में चीन के विदेश मंत्रालय ने एक बयान में यह स्पष्ट कह दिया कि वह चाहता है कि जापान के साथ एक ऐसा रिश्ता बना रहे जो मजबूत फायदेमंद और दोनों देशों के लिए भरोसेमंद हो। चीन ने संकेत दिया कि वह जापान को एक ऐसे सहयोगी के रूप में देखता है जो सिद्धांतिक विरोध के बजाय व्यवहारिक सहयोग को तवज्जो देता है और जापान का रुख भी कुछ ऐसा ही रहा। इसी के तहत अप्रैल 2025 की शुरुआत में जापान, चाइना और साउथ कोरिया के बीच एक महत्वपूर्ण त्रिपक्षीय बैठक हुई। जो पिछले 5 सालों में पहली बार हुई थी। इस बैठक में तीनों देशों ने मिलकर इस बात पर चर्चा की कि वह कैसे अमेरिका के टेरी प्रेशर को मैनेज करेंगे और खासकर सेमीकंडक्टर कच्चे माल की सप्लाई चैन को स्थिर और कंटिन्यू कैसे बनाए रखेंगे। यह मीटिंग ना सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थी बल्कि इसका राजनीतिक संदेश भी साफ था। जापान अब चीन के विरोधी गुटों में शामिल होने के लिए एक्साइटेड नहीं दिखता। इस मीटिंग का संकेत यह भी था कि जापान अब एक बैलेंस्ड और खुद की विदेश नीति की ओर बढ़ रहा है और अमेरिका के साथ सुरक्षा गठबंधन बनाए रखते हुए भी चीन के साथ आर्थिक रिश्तों को कमजोर नहीं करना चाहता। यह एक तरह से दो तरफ़ा संतुलन है। एक तरफ सैन्य गठबंधन और दूसरी तरफ व्यापारिक साझेदारी। यह रणनीति ना सिर्फ जापान के लिए फायदेमंद हो सकती है बल्कि एशिया में एक तरह की नई भूराजनीतिक संरचना को जन्म दे सकती है। जापान की कई कंपनियां आज भी चाइना में अपनी सप्लाई चैन बनाए रखी हुई है और बिजनेस पर डिपेंडेंसी में कोई भी खास कमी नहीं आई है। एक्सपर्ट्स के मुताबिक जापान की फॉरेन पॉलिसी दो तरफ़ा चल रही है। एक तरफ से अमेरिका के साथ सिक्योरिटी टाई अप और दूसरी तरफ चाइना के साथ गहरे बिजनेस रिलेशंस। जून 2025 में जापान ने ईस्ट चाइना सी में चीन के एक नए कंस्ट्रक्शन पर आपत्ति जताई थी। लेकिन इसे सीधे टकराव के बजाय एक बातचीत का तरीका बताया गया। जिससे यह समझ में आता है कि जापान इस पूरे मामले में काफी बैलेंस और प्रैक्टिकल तरीके से देख रहा है। भारत इस पूरे सिचुएशन में एक न्यूट्रल और एक बैलेंस अप्रोच रखता है। जुलाई 2025 में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि चीन के साथ बॉर्डर टेंशन कम करना और ट्रेड में ज्यादा रिस्ट्रिक्शन से बचना जरूरी है ताकि बातचीत और कोऑपरेशन चलता रहे। इससे साफ होता है कि भारत किसी भी ग्रुप में ब्लाइंडली शामिल नहीं है बल्कि वह अपनी इंडिपेंडेंट और नेशनल इंटरेस्ट बेस्ड स्ट्रेटजी चलाना चाहता है। 2024 और 25 के दौरान भारत और चीन के बीच जो व्यापारिक गतिविधियां हुई वह इस बात का मजबूत संकेत देती है कि दोनों देशों के रिश्ते सिर्फ राजनीति और सैन्य मोर्चों तक सीमित नहीं है। बल्कि आर्थिक मोर्चों पर भी गहरे जुड़े हुए हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार इस साल भारत और चीन के बीच कुल व्यापार करीब 120 बिलियन के आसपास पहुंच चुका है। जो अब तक का एक नया रिकॉर्ड है। लेकिन अगर इस आंकड़े को थोड़ी गहराई से देखा जाए तो पता चलेगा कि इस कुल व्यापार का करीब 84% हिस्सा केवल चाइना से इंपोर्ट किया गया है। यानी भारत जो चीन को बेच रहा है उससे कहीं ज्यादा चीन से खरीद रहा है। इसका सीधा मतलब है कि भारत का ट्रेड डेफिसिट यानी व्यापार घाटा अब करीब 99 बिलियन तक पहुंच चुका है। यह संख्या ना सिर्फ बड़ी है बल्कि भारत की आर्थिक संरचना में एक खास कमजोरी की ओर इशारा करती है। भारत आज भी कई महत्वपूर्ण चीजों के लिए चाइना पर ज्यादा डिपेंडेंट है। इसमें इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मासटिकल रॉ मटेरियल्स, सोलर पैनल्स, मशीनरी और अन्य कई इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट शामिल हैं। जहां एक तरफ भारत अपनी आत्मनिर्भरता यानी कि सेल्फ रिलायंस की दिशा में बढ़ने की कोशिश कर रहा है। वहीं अभी एक हकीकत है कि मौजूदा समय में चाइना से तुरंत दूरी बना लेना इतना आसान नहीं है। यही वजह है कि ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सीनियर एनालिस्ट ने हाल ही में कहा है कि अगर भारत को आने वाले दशक में $ ट्रिलियन डॉलर तक की इकॉनमी बनना है जो सरकार का एक बड़ा लक्ष्य है तो उसे चाइना के साथ एक सीमित लेकिन फायदेमंद संबंध बनाए रखना ही होगा। लेकिन यह रिश्ता केवल भावना या फिर भरोसे पर नहीं बल्कि पूरी तरह से रणनीतिक नियंत्रण यानी कि स्ट्रेटेजिक कंट्रोल से होना चाहिए। ताकि भारत को फायदा हो ना कि नुकसान। दोस्तों अगर हम इन सारी घटनाओं को एक साथ देखें तो तस्वीर काफी साफ हो जाती है। जापान की नीति अभी के समय चाइना के साथ ज्यादा कोपरेटिव और सपोर्टिव नजर आती है। जापान डिप्लोमेटिक लेवल पर चाइना से दूरी बनाने का दिखावा जरूर करता है। लेकिन असल में वह डायलॉग और ट्रेड रिलेशंस को ज्यादा प्राथमिकता देता है। अमेरिका की टेरिफ नीति के खिलाफ जापान अब बैलेंस और शांत रुख अपनाता है। वह सीधे विरोध में नहीं जाता बल्कि दोनों तरफ से अपने हितों को साधने की कोशिश करता है। इसकी तुलना में भारत की नीति कहीं ज्यादा स्पष्ट, मजबूत और दूरदर्शी है। भारत कोई एक तरफ का पक्ष नहीं ले रहा बल्कि अपनी स्वतंत्र नीति पर कायम रहते हुए हर कदम नेशनल इंटरेस्ट को ध्यान में रखकर उठाता है। जिस तरह से भारत अपने ट्रेड, डिप्लोमेसी, टेक्नोलॉजी और पॉलिटिकल डिसीजंस को बैलेंस कर रहा है, वह एक बड़ी पावर बनने की तैयारी का संकेत है। यहां जियोपॉलिटिक्स, ट्रस्ट मैनेजमेंट और इकोनॉमिक बैलेंसिंग तीनों एक साथ चल रहे हैं और यही भारत की सबसे बड़ी ताकत बन सकती
📉 US is Disappointed with Japan’s Decision to Join China! | Global Economic Power is Shifting 🌏
🚨 BREAKING NEWS – Japan’s bold move to align closer with China has sent shockwaves across Washington! 🇯🇵🤝🇨🇳 The United States is disappointed with Japan’s latest move towards economic cooperation with China, marking a major turn in global geopolitics. This unexpected development could reshape global trade, finance, and the balance of power in the Asia-Pacific region 🌍.
📉 Is the economic influence of the West declining?
📈 Is China becoming the new global leader in trade and finance?
In this video, we break down:
✅ Why Japan is moving closer to China
✅ The reaction from the United States
✅ The global economic impact
✅ What this means for the future of international trade
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