How Japan got rich after World War II? Japan History in Hindi

1945 का साल करवटें बदल रहा है। जापान का बचना नामुमकिन है। उसके दो शहरों पर परमाणु हमला हुआ है। आधा मुल्क मलबे से ढका हुआ है। सम्राट को बिना शर्त समर्पण करना पड़ा है। एक प्रधानमंत्री को फांसी की सजा हो चुकी है। लाखों लोग बेघर और बेरोजगार हैं। जीडीपी घटकर आधी पर आ चुकी है। महंगाई दर 300% से ज्यादा बढ़ गई है। यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद का जापान है बर्बादी, हताशा और अनिश्चितता का प्रतीक। लेकिन महज दो दशक बाद कहानी 180° बदल चुकी थी। जापान ने बड़े ही हैरतंगेज ढंग से तरक्की की थी। वो दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी इकॉनमी वाला देश बन गया था। उसकी पटरियों पर बुलेट ट्रेंस दौड़ रही थी। जापानी कंपनियां दुनिया भर में अपना नाम और पैसा कमा रही थी और मेड इन जापान स्टेटस सिंबल था। लेकिन यह चमत्कार हुआ कैसे? जापान फर्श से अर्श तक कैसे पहुंचा? जापान की रिकवरी हमें क्या सिखाती है? और क्या जापान फिर से पतन की तरफ बढ़ रहा है। नमस्कार, मैं हूं दिव्याशी सुमरा। क्यों स्थान पर आज जापान की कहानी सुनिए। [संगीत] यह आज का जापान है। प्रशांत महासागर में बसा एक द्वीपीय देश जिसकी जमीनी सीमा किसी दूसरे देश से नहीं लगती। लेकिन एक समय उसका साम्राज्य चीन से लेकर बर्मा तक फैला हुआ था। उसने भारत पर हमले की तैयारी भी कर ली थी। ऐसा होता उससे पहले अमेरिका ने हिरशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिया। 6 और 9 अगस्त 1945 को बम गिरे। 15 अगस्त को सम्राट हिरोहितों ने आत्मसमर्पण की घोषणा कर दी और 2 सितंबर 1945 को सरेंडर के कागजात पर दस्तखत भी कर दिए। इसी के साथ जापान पर अमेरिका का कब्जा हो गया था। यहां पर एक ध्यान देने वाली बात है। जापान को अकेले अमेरिका ने नहीं हराया था। उसको हराने में सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन भी शामिल थे। जर्मनी में भी यही हुआ था। उसको अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ ने मिलकर हराया था। बाद में उन्होंने जर्मनी को आपस में बांट लिया था। यहां तक कि राजधानी बर्लिन के भी चार टुकड़े किए गए थे। लेकिन जापान के साथ ऐसा नहीं हुआ। वैसे जापान को बांटने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। नॉर्थ पर सोवियत संघ का नियंत्रण था। साउथ में छोटे से हिस्से पर ब्रिटेन अपना दावा कर रहा था। जबकि साउथ ईस्ट जापान पर चीन की दावेदारी थी। यह चियांग काई शेक वाला चीन था। जिस वक्त जापान के बंटवारे पर बात हो रही थी, माओ जिदंग सत्ता में नहीं आया था। इस प्लान में अमेरिका को सेंट्रल जापान मिलता लेकिन उसने प्लान को पहले ही खारिज कर दिया। वो जापान के बंटवारे के लिए तैयार नहीं हुआ। दरअसल अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हेरी एस्ट्रुमैन कम्युनिज्म के सख्त खिलाफ थे। कई इतिहासकार यह मानते हैं कि जापान के सम्राट को भी सोवियत संघ का डर था। उन्हें लगता था कि सोवियत संघ राजा की सत्ता को खत्म कर देगा। इसीलिए उन्होंने आनन-फानन में अमेरिका के सामने सरेंडर किया था। अगला दावेदार ब्रिटेन था। लेकिन वो नई कॉलोनी का खर्चा उठाने की स्थिति में नहीं था। उसको कुछ जापानी सैनिकों को सरेंडर कराने की जिम्मेदारी मिली थी। अपना काम पूरा करके वह तुरंत बाहर चला गया। फिर चीन का नाम आया। चीन को अमेरिका ने जापान से मुक्ति दिलाई थी। दूसरी तरफ चियांगकाई शेप सिविल वॉर में उलझे हुए थे। इसलिए उन्होंने फोरमूसा द्वीप से संतोष कर लिया। जब माओ की रेड आर्मी ने उन्हें हराया तब यही फोरमूसा उनका सहारा बना था। इसको आज हम ताइवान के नाम से जानते हैं। इस तरह जापान का फुल कंट्रोल अमेरिका के पास आ गया और अमेरिका ने कमान जनरल डगलस मैक आर्थर को सौंप दी। सोवियत संघ, ब्रिटेन और चीन को एडवाइज़री रोल मिला। लेकिन अंतिम फैसला मैक आर्थर का होता था। मैक आर्थर यूएस आर्मी के सबसे डेकोरेटेड जनरल्स में से एक थे। वो जापान को हराने वाली मित्र सेना के कमांडर थे। बाद में उन्होंने कोरियन वॉर में यूएन फोर्स को भी लीड किया। मैकार्थर जापान को वफादार बनाने के मकसद से गए थे ताकि वो दोबारा अमेरिका के लिए खतरा ना बन सके। उन्होंने सबसे पहले जापान की सेना को भंग कर दिया। फौजी अफसरों की पॉलिटिक्स में एंट्री पर बैन लगा दिया और वॉर क्राइम के दोषियों को सजा देने के लिए ट्राइबनल की स्थापना की। जैसे यूरोप में न्यूरेंबर्ग ट्रायल चला था वैसे ही जापान में टोक्यो ट्रायल चलाया गया। इसमें युद्ध काल के कई नेताओं और मिलिट्री अफसरों को सजा सुनाई गई। इसमें सबसे हाई प्रोफाइल नाम हिदे की तोजो का था जो 1941 से 1944 तक जापान के प्रधानमंत्री रहे। उनको मौत की सजा मिली। तोचों के अलावा कई और लोगों को फांसी और जेल की सजा दी गई। लेकिन एक नाम पूरे ट्रायल से दूर रहा सम्राट हिरोहितो का। पूरा युद्ध उनकी छत्रछाया में लड़ा गया था। जापानी सैनिक युद्ध में जाने से पहले सम्राट के प्रति वफादारी की कसम खाते थे। लेकिन अमेरिका ने हिरोहितों को बचा लिया। इसका एक कारण यह भी था कि सम्राट में आम लोगों की आस्था बनी हुई थी और अमेरिका उनके जरिए अपने फैसलों को सर्वमान्य बना सकता था। इसी वजह से उसने सरकार को भी भंग नहीं किया। सम्राट हेड ऑफ द स्टेट बने रहे। उनके पास प्रधानमंत्री नियुक्त करने की शक्ति भी बची रही। कैबिनेट चुनने का अधिकार प्रधानमंत्री के पास था। यही कैबिनेट संसद में बिल पेश करती थी और बिल संसद से पास होकर कानून बनता था। इस प्रोसेस पर जनरल हेड क्वार्टर्स यानी मैक आर्थर का पूरा कंट्रोल था। उनके निर्देश पर युद्ध से पहले की दिग्गज कंपनियों पर ताला लगा दिया गया। जमींदारों से जमीन लेकर किसानों में बांट दी गई और लेबर रिफॉर्म्स भी किए गए। फिर 1946 में संसद की एक कमेटी को नया संविधान बनाने के लिए कहा गया। लेकिन उसका काम मैक आर्थर को पसंद नहीं आया। तब उन्होंने अपने स्टाफ से नया ड्राफ्ट बनवाया और उसी के आधार पर नया संविधान लिखने के लिए कहा। जब संविधान बनकर तैयार हो गया तब संसद भंग कर दी गई और अप्रैल 1946 में आम चुनाव कराए गए। फिर संविधान के ड्राफ्ट पर चर्चा हुई और अक्टूबर 1946 में इस पर मोहर लगा दी गई। यह संविधान मई 1947 में लागू हो गया। आज भी वही संविधान चल रहा है। इसके हर पन्ने पर अमेरिका की छाप थी। ज्यादातर प्रावधान उसके फायदे के हिसाब से बनाए गए थे। इसमें से दो प्रावधानों पर गौर करना यहां पर जरूरी है। पहला सम्राट की शक्तियों को सीमित कर दिया गया। वह नाम मात्र के राजा रह गए। अब वह सरकार के कामकाज में दखल नहीं दे सकते थे। इस तरह जापान में वेस्टर्न स्टाइल डेमोक्रेसी लाई जा रही थी। दूसरा प्रावधान था संविधान का आर्टिकल नाइन। इसमें दर्ज था कि जापान कभी युद्ध नहीं लड़ेगा और किसी अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुलझाने के लिए धमकी या सेना का इस्तेमाल भी नहीं करेगा। इस संबंध में वह थल, वायु और नौसेना नहीं रख सकता था। हालांकि अमेरिका के दबाव में उसने 1954 में सेल्फ डिफेंस फोर्स बनाई लेकिन इसका नेचर अभी तक साफ नहीं हो पाया है। आर्टिकल नाइन पर बहस आज तक जारी है। एक धड़ा यह कहता है कि जापान को किसी भी तरह का हथियार रखने की इजाजत नहीं है। जबकि दूसरे धड़े का मानना है कि लिमिटेड स्केल पर हथियार रखे जा सकते हैं। अगर जापान हथियार नहीं रख सकता फिर उसकी सुरक्षा कौन करता है? एक तो जापान की सेल्फ डिफेंस फोर्स है लेकिन वे कोई बड़ा हमला रोकने में सक्षम नहीं है। उस स्थिति में यूएस के साथ हुई डिफेंस ट्रीटी काम आएगी। इसमें दर्ज है कि जापान पर बाहरी हमले की स्थिति में अमेरिका उसकी सुरक्षा करेगा। इसी इरादे से जापान में अमेरिका के 120 मिलिट्री बेससेस एक्टिव हैं। उसके 500 से ज्यादा सैनिक वहां तैनात हैं। यानी जापान की सिक्योरिटी पॉलिसी अमेरिका के भरोसे पर टिकी है। इस इक्वेशन की शुरुआत सेकंड वर्ल्ड वॉर के तुरंत बाद हो चुकी थी। तो पॉलिटिक्स और मिलिट्री वाला पहलू आपको समझ आ गया होगा। अब हम इकोनॉमिक पार्ट पर बात करेंगे क्योंकि इसी ने जापान की पूरी इमेज बदली और उसको आर्थिक चमत्कार का सिरमौर बना दिया। लेकिन यह चमत्कार एक दिन में नहीं हुआ था। इसके पीछे कुछ क्रांतिकारी नीतियां थी। एक जियोपॉलिटिकल घटना थी और सबसे जरूरी जापान के आम लोगों का भरोसा, समर्पण और आत्मविश्वास था। पहली नीतियों पर बात कर लेते हैं। दूसरा वर्ल्ड वॉर खत्म होने के तुरंत बाद जापान को डेवलप करने की बात चलने लगी थी। अमेरिका इसमें जी जान से जुटा हुआ था। लेकिन यह उसका परोपकार नहीं था बल्कि कोल्ड वॉर की रेस हारने का डर था। दरअसल 1948 में कोरियन पेनसुला दो हिस्से में बट चुका था। उत्तर कोरिया को सोवियत संघ सपोर्ट कर रहा था। कुछ समय बाद उसने साउथ कोरिया के खिलाफ जंग भी शुरू कर दी थी। फिर अक्टूबर 1949 में चीन पर कम्युनिस्ट पार्टी का कब्जा हो गया। यह पार्टी सोवियत संघ से दिशा निर्देश लेती थी। अमेरिका के समर्थन वाली कुमितांग पार्टी को भागकर ताइवान जाना पड़ा। तीसरी तरफ वियतनाम में होचीमिन की गोरिल्ला आर्मी ने फ्रांस के खिलाफ जंग छेड़ रखी थी। यानी ईस्ट एशिया का इलाका अमेरिका के प्रभाव से निकलता जा रहा था। इसलिए उसने जापान पर दांव खेला। वो जापान को कैपिटलिस्ट इकॉनमी का सटीक उदाहरण बनाना चाहता था। इस कवायद में सबसे पहले लैंड रिफॉर्म्स पर जोर दिया गया। विश्व युद्ध से पहले जापान की 2/3 जमीन जमींदारों के पास थी। वह किसानों को खेत किराए पर देते थे। किसानों को फसल का आधा हिस्सा चुकाना पड़ता था। अगर फसल खराब हुई तो इसके चलते पूरा परिवार काम करके भी गरीबी से नहीं निकल पाता था। वर्ल्ड वॉर के बाद आम किसानों को जमीन का मालिक बनाया गया। अब वे अपने हिसाब से खेती कर सकते थे। इससे बहुत सारा लेबर फोर्स खाली हुआ जिन्हें इंडस्ट्रीज में लगाया जा सकता था। दूसरा प्रोग्राम लेबर रिफॉर्म्स का था। दूसरे विश्व युद्ध से पहले जापान में लेबर यूनियन नहीं के बराबर थे। इसलिए वर्कर्स की सैलरी और उनके अधिकारों पर बात नहीं होती थी। वर्कर्स का शोषण आम बात थी। जंग के बाद लेबर लॉज़ में सुधार किए गए। लेबर यूनियंस को काम करने की इजाजत मिली। वर्कर्स के अधिकारों पर ध्यान दिया गया। उनकी सैलरी भी बढ़ाई गई। इससे वर्कर्स और कंपनियों के बीच लॉन्ग टर्म रिलेशनशिप बना। ज्यादातर लोग रिटायर होने तक एक ही कंपनी में काम करते थे। वे एंट्री लेवल से शुरू करके टॉप तक जा सकते थे। इससे फायदा यह हुआ कि लीडरशिप को कंपनी का ओवरऑल स्ट्रक्चर और कल्चर पता होता था। इस तरह कंपनी स्टेबल बनी रहती थी। तीसरी चीज थी महिलाओं की भागीदारी। जंग से पहले जापान में पेट्रिया की अपने चरम पर थी पुरुष ही भार कमाने जाते थे। महिलाओं को घर के कामकाज तक सीमित रखा जाता था। जंग के बाद इसमें बड़ा बदलाव देखने को मिला। अब महिलाएं भी अपने घरों से बाहर निकलने लगी थी। इससे एक तरह का खुलापन आया। सबसे जरूरी और सबसे बड़ा बदलाव बिजनेस में आया। अमेरिकी प्रशासन ने जाइबात्स पर तगड़ी चोट की। जाइबासू यानी कुछ चुनिंदा कंपनियों और बैंकों का सिंडिकेट। उन्हें टैक्स से लेकर बिजनेस बढ़ाने तक में सरकार का साथ मिलता था। जापान की इकॉनमी पर उनकी मोनोपोली थी। पोस्ट वॉर रिफॉर्म्स में मोनोपोली खत्म करने का प्लान था। लेकिन इस प्लान को बीच में ही रोकना पड़ा। दरअसल बड़ी कंपनियों के बिना बड़े लेवल पर प्रोडक्शन संभव नहीं था। दूसरी बात नया इंस्टीट्यूशन बनाने में लंबा समय लगता इसीलिए जाईसू को नए फॉर्म में फिर से खड़ा किया गया। उन्हें लोन, जमीन, टेक्नोलॉजी, रॉ मटेरियल से लेकर हर चीज में सपोर्ट मिला। इस तरह एक नया मॉडल अस्तित्व में आया। इसे किरेसु कहा गया। इस मॉडल में सभी स्टेक होल्डर साथ मिलकर काम करते थे। उनकी एक दूसरे के बिजनेस में हिस्सेदारी रहती थी और जरूरत पड़ने पर वे एक दूसरे को संभालते भी थे। एक उदाहरण से इसको समझते हैं। Toyota या Nissan ऑटोमोटिव कंपनियां हैं। उनको गाड़ियां बनाने के लिए रॉ मटेरियल्स की जरूरत पड़ती है। उन्हें स्टील, रबर, प्लास्टिक जैसी चीजें चाहिए। ये सब लाने का काम सप्लायर्स का होता है। फिर जब कार बन गई उसको बेचने या एक्सपोर्ट करने के लिए डिस्ट्रीब्यूटर्स होते हैं। नॉर्मल कंडीशन में यह सारे बिजनेस अलग-अलग काम करते हैं। जब तक उनकी एक्सपर्टीज का काम नहीं आता तब तक उन्हें दूसरे से कोई मतलब नहीं रहता है। लेकिन कितसो मॉडल में सभी स्टेक होल्डर्स आपस में जुड़े थे। उनकी एक दूसरे की कंपनियों में हिस्सेदारी रहती थी और वे एक दूसरे के साथ रिसर्च और डेवलपमेंट प्लान भी साझा करते थे। इसका दूसरा फॉर्म भी था जिसमें एक ही कंपनी अलग-अलग सेक्टर्स में काम करती थी। यह स्टेक होल्डर्स एक मेन बैंक से जुड़े होते थे जो उन्हें लोन भी देता था और उनको आगे बढ़ाने में मदद भी करता था। इसी तरह के नेटवर्क को किरेट्स कहा जाता था और इससे फायदा क्या होता था? कंपनियां लॉन्ग टर्म प्लान बना सकती थी। उन्हें मार्केट के उतार-चढ़ाव से डरने की जरूरत नहीं थी। वे प्रोडक्शन को अपने हिसाब से कंट्रोल कर सकते थे और वे कम लागत में ज्यादा बेहतर प्रोडक्ट बना सकते थे। इन सबके अलावा जापान सरकार ने 1949 में मिनिस्ट्री ऑफ इंटरनेशनल ट्रेड एंड इंडस्ट्री यानी नीति बनाई। यह ग्रोथ पोटेंशियल वाले सेक्टर्स को बढ़ावा देती थी। दूसरे देशों से आने वाले प्रोडक्ट्स पर नियंत्रण रखती थी और एक्सपोर्ट बढ़ाने पर फोकस करती थी। मीति ने रिसर्च पर अच्छा खासा निवेश किया था। वे किरत्सू के फायदे के हिसाब से पॉलिसी डिसाइड करते थे। उनकी भूमिका एक गाइड की थी और इसने जापान की रिकवरी में बहुत मदद की क्योंकि कंपनियों को लाल फीताशाही में नहीं फंसना पड़ता था। लेकिन इस सिस्टम की एक आलोचना भी होती है। आरोप लगते हैं क्योंकि सरकार का पूरा ध्यान किरत्सू पर रहता था। उनकी ट्रेड पॉलिसीज उन्हीं को फोकस करके बनती थी। इससे नई और छोटी कंपनियों के लिए मार्केट में बने रहना बहुत मुश्किल हो गया। खैर अब जियोपॉलिटिकल सेक्टर को भी समझ लेते हैं। साल 1950 में जापान के पड़ोस में कोरियन वॉर शुरू हो गया। कोरियन पेनसुला पहले ही नॉर्थ और साउथ में बट चुका था। नॉर्थ को सोवियत संघ और चीन की मदद मिल रही थी। साउथ कोरिया को यूएन फोर्स का सपोर्ट मिला। इस फ़ में 90% सैनिक अमेरिका से थे। उन तक कपड़े, टेंट, गाड़ियां, खाना आदि पहुंचाना जरूरी था। अगर अमेरिका यह सारा सामान अपने यहां से बनाकर भेजता तो उसको काफी समय लगता और लागत भी ज्यादा पड़ती। इसकी तुलना में जापान कोरियन पेनसुला के पास था। इसलिए उसने जापान को प्रोडक्शन हब बनाने का फैसला किया। इससे जापान को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिला। उसकी फैक्ट्रियां काम करने लगी थी। सप्लाई चेन दुरुस्त हो चुका था। सामान पहुंचाने के लिए ट्रांसपोर्ट सिस्टम ठीक किया गया। लाखों लोगों को इससे नौकरी मिली और जापान के हाथ अमेरिकन टेक्नोलॉजी भी लगी। जब तक कोरियन वॉर चला अमेरिका ने जापान से लगभग 3.5 बिलियन डॉलर का सामान खरीदा। इसके अलावा अमेरिकी सैनिक अपने साथ जो डॉलर्स लाते थे वे भी जापान में खर्च हो रहा था। इससे जापान की इकॉनमी को जबरदस्त बूस्ट मिला। इसी बीच 1952 में अमेरिका ने जापान को आजाद कर दिया। इससे एक बरस बाद कोरियन वॉर में युद्ध विराम हो गया। अब जापान के लिए मुश्किल पैदा हो गई। उसकी इनकम का एक बड़ा सोर्स खत्म हो रहा था। उसकी इकॉनमी फिर से डूब सकती थी। लेकिन अमेरिका एक बार फिर आगे आया। 1954 में उसने जापान को सेल्फ डिफेंस फोर्स बनाने के लिए कहा। यह फोर्स लिमिटेड सिक्योरिटी के लिए थी। बड़े खतरे का भार अमेरिका ने खुद उठाया। इससे जापान का डिफेंस बजट काफी घट गया। जो पैसा बचा उसका इस्तेमाल इंडस्ट्रीज और दूसरे डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स में किया गया। इसके बाद अमेरिका ने वर्ल्ड बैंक से जापान को लोन भी दिलवाया और उसने अपना मार्केट तो खोला ही दूसरे देशों को भी जापानी प्रोडक्ट्स खरीदने के लिए तैयार किया। फिर 1964 में टोक्यो को ओलंपिक गेम्स की मेजबानी मिल गई। इसने जापान की इमेज को काफी हद तक बदल दिया। जापान एक समय तक सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स में जीता था। उसने अपने बॉर्डर्स बाहरी दुनिया के लिए बंद कर रखे थे। 19वीं और 20वीं सदी में जापान की इंपीरियल आर्मी ने चीन, कोरिया, इंडोनेशिया, बर्मा आदि जगहों पर भयंकर क्रूरता दिखाई थी। नानसिंह, नरसंहार और कंफर्ट वुमेन जैसे मुद्दे आज तक परेशान करते हैं। हालांकि 1964 के टोक्यो ओलंपिक्स ने उसके ऊपर लगे दाग कुछ कम किए। अब दुनिया उसको लेकर थोड़ी उदार हो रही थी। उसने जापान को अपना बिजनेस फैलाने में काफी मदद की। फिर आया 1968 का साल जब जापान सो कॉल्ड फ्री वर्ल्ड में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया। इसका असर आम लोगों के जीवन पर भी दिख रहा था। 1945 से 1968 के बीच प्रति व्यक्ति आय चार गुना तक बढ़ी थी। 1945 में जापान अपनी जरूरतों के लिए भारी मदद पर निर्भर था। 1968 में वह बाकी दुनिया को मदद दे रहा था। 1950 तक औसत उम्र 60 से भी कम थी। 1968 तक औसत उम्र बढ़कर 72 वर्ष तक पहुंच चुकी थी। 2023 में यह 84 के पार जा चुकी है। दुनिया की पहली बुलेट ट्रेन 1964 में जापान में ही चली थी। वह अब दूसरे देशों को बुलेट ट्रेंस चलाने में मदद कर रहा है। Sony, Toyota, nissan, msubi, Honda, Panasonic, Ni ने जैसी कंपनियों का नाम पूरी दुनिया की जुबान पर था। वे कम कीमत में क्वालिटी प्रोडक्ट्स मुहैया करा रहे थे। उन पर भरोसा किया जा सकता था। यह कंपनियां आज भी कंपटीशन में बनी हुई हैं। जापान का यह कायाकल्प किसी चमत्कार से कम नहीं था। इस चमत्कार के पीछे अमेरिका का सपोर्ट था, सरकार की नीतियां थी और जिओपॉलिटिक्स भी था। लेकिन सबसे जरूरी फैक्टर थे जापान के आम लोग जिन्होंने मुल्क की तरक्की को अपना मकसद बना लिया। इसके लिए उन्होंने भारी कुर्बानियां दी और बदलाव को स्वीकार किया। यह समय की मांग भी थी। आम लोग अपने काम में ज्यादा समय बिताने लगे। उन्होंने बिना शिकायत के मेहनत जारी रखी। लोगों ने अपने हाथों से घर, स्कूल और दुकानें बनाई। ऐसी चीजों में हर व्यक्ति एक दूसरे का साथ देता था। जापान में एजुकेशन पर भी काफी ध्यान दिया गया। बड़ी संख्या में नए स्कूल बनाए गए। सरकार ने एजुकेशन सिस्टम को प्रैक्टिकल बनाया। किताबी ज्ञान के साथ-साथ स्किल डेवलपमेंट पर भी जोर दिया जाने लगा। वर्कर्स के बीच काइजन थ्योरी को बढ़ावा दिया गया। कासिन माने लगातार खुद को इंप्रूव करना। इसमें सबको डिसीजन मेकिंग का हिस्सा बनाया जाता था। हर व्यक्ति की सलाह पर ध्यान दिया जाता था और सिर्फ एंड प्रोडक्ट नहीं बल्कि पूरे प्रोसेस को रिफाइन किया जाता था। इससे प्रोडक्ट्स में गलती की बहुत कम गुंजाइश बचती थी। नॉर्मल लाइफ में भी लोग अनुशासित थे। वे कलेक्टिव होकर सोचते थे। देश की इमेज उनके लिए ज्यादा अहम थी। आज ये उनकी पहचान का हिस्सा बन चुका है। एक और बड़ी चीज हुई। लोगों ने सेविंग्स को बढ़ावा दिया। इससे बैंकों के पास पैसा आया। उन्होंने वह पैसा कंपनियों को लोन के तौर पर दिया। इससे कंपनियों को बिजनेस बढ़ाने में मदद मिली। ओवरऑल यह पूरी इकॉनमी के लिए फायदेमंद साबित हुआ। तो, यह जापान के उदय की कहानी थी। उसने फर्श से अर्श तक का सफर पूरा कर लिया था। फिर 1970 का दशक शुरू होता है और जापान की रफ्तार पर अचानक एक झटका लगता है। 1971 में अमेरिका ने अपने दुश्मन चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। चीन ने वो हाथ अच्छे से पकड़ लिया। 1971 में ही चीन को यूनाइटेड नेशंस की मेंबरशिप मिल गई। फिर 1972 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निकसन चीन गए। माओ ज़दोंग से उनकी मुलाकात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन कोल्ड वॉर ने वह दिन भी दिखला दिया। माओ की मौत के बाद डेंग जाऊपिंग सुप्रीम लीडर बने। उसके तुरंत बाद अमेरिका ने चीन के साथ डिप्लोमेटिक रिश्ते बनाए और जाऊपिंग ने चीन का मार्केट दुनिया के लिए खोल दिया। चीन के पास रॉ मटेरियल्स और ह्यूमन रिसोर्सेज की कोई कमी नहीं थी। उसने बहुत जल्दी मार्केट पकड़ लिया। वो मैन्युफैक्चरिंग में तेजी से आगे बढ़ रहा था और सीधे जापान को चुनौती देने लगा था। 2010 में चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। मौजूदा समय में जापान उसके मुकाबले में कहीं नहीं है। चीन की इकॉनमी जापान से लगभग पांच गुना बड़ी हो चुकी है। पिछले 15 से 20 वर्षों में चीन की तुलना में जापान की ग्रोथ रेट कम जरूर हुई है। फिर भी उसने अपनी जगह बचा कर रखी है। पैसे और स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग के मामले में वह आज भी अमीर और विकसित माना जाता है। लेकिन इस चकाचौंध की उसको कुछ मुश्किल कीमत भी चुकानी पड़ी है। नंबर एक जापान में पॉपुलेशन ग्रोथ नेगेटिव में है। वहां बुजुर्गों की आबादी लगातार बढ़ रही है। जबकि नई पीढ़ी में बच्चा पैदा करने का चलन घटा है। उनके सामने करियर ग्रोथ, कंपटीशन, कॉस्ट ऑफ लिविंग जैसी चीजें आ जाती हैं। इसके चलते काम करने में सक्षम लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है। नंबर दो, जापान का समाज विदेशी लोगों को लेकर अभी भी पूरी तरह नहीं खुला है। वे अपने यहां फॉरेन वर्कर्स को ज्यादा पसंद नहीं करते हैं। इसके चलते काम का बोझ आम जापानियों पर ज्यादा है। इस चक्कर में वर्क लाइफ बैलेंस का कांसेप्ट बिल्कुल भुला दिया गया है। जापान को एक समय पर ज्यादा मेहनत की जरूरत थी लेकिन बाद में इसको नॉर्मल बना दिया गया। इसने लोगों की हेल्थ पर काफी खराब असर डाला। जापान में ओवरवर्क और स्ट्रेस से मौत काफी आम हो चुकी है। तीसरी चीज यह हुई कि जापान में शहरीकरण तेजी से बढ़ा। लोग गांव छोड़कर शहरों की तरफ आने लगे। इस तरह गांव वीरान हो गए। जबकि शहरों में कॉस्ट ऑफ लिविंग बढ़ने लगी। लोगों की कमाई और उनका समय रेंट चुकाने या किश्त भरने में जाने लगा। उन्हें दूसरी चीजों के बारे में सोचने का मौका नहीं मिला। रीति-रिवाज, संस्कृति, परंपराएं आदि पीछे छूटने लगी। इसने जापानी सोसाइटी का ताना-बाना पूरी तरह से बिगाड़ दिया। अब चौथी कीमत पर आते हैं असमानता। जापान के विकास का एक बड़ा नुकसान महिलाओं को उठाना पड़ा है। महिलाओं को शादी या बच्चा पैदा होने के बाद वर्क प्लेस से बाहर मान लिया जाता है। उनके लिए वापस लौटना काफी मुश्किल है। लीडरशिप रोल में पुरुषों की हिस्सेदारी लगभग 90% है और वे महिलाओं को जगह देने के लिए तैयार नहीं है। लोगों का एक और तबका जो टेंपरेरी सेक्टर में काम करते हैं या जिनके पास प्रॉपर जॉब प्रोटेक्शन नहीं है वे इनकम लैडर में काफी नीचे हैं और यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है। इसमें कोई शक नहीं कि जापान की तरक्की असाधारण रही है। उसने पूरी दुनिया को यह दिखाया कि राख से महल कैसे खड़ा किया जाता है। उसकी जीवटता, उसका समर्पण और उसकी उड़ान ऐतिहासिक है। लेकिन इस चमक की जो कीमत उसने चुकाई है, उसकी भरपाई शायद ही संभव है। आपको जापान की कहानी कैसी लगी? आप जापान की तरक्की के बारे में क्या सोचते हैं? हमें कमेंट कर जरूर बताएं। अगर वीडियो पसंद आया हो तो इसको लाइक और शेयर करते रहिए। हमारे चैनल क्यूरिस्तान को सब्सक्राइब भी कर लीजिए। यह तमाम जानकारी आपके लिए लेकर आए थे अभिषेक कुमार। कैमरा के पीछे हैं आकाश गौतम। नए वीडियो में नई कहानी के साथ फिर मिलूंगी। तब तक के लिए विदा लेती हूं। शुक्रिया। [संगीत]

#Japan #KoreaWar

The Rise of Japan: From Atomic Destruction to Economic Miracle | Japan Story in Hindi | @divyanshi_sumrav

Curistaan dives into one of history’s most inspiring transformations — Japan’s remarkable rise after the devastation of the atomic bombings and the US Occupation.

From the ashes of World War II, Japan rebuilt itself into an economic powerhouse. Discover how the Korean War (1950–1953) became a surprising catalyst for Japan’s economy, fueling industrial growth, trade, and infrastructure. Discover how the US Occupation reforms transformed Japan’s politics, society, and economy, laying the groundwork for its rapid modernisation.

We also explore Japan’s cultural revolution — how a shift in values, education, innovation, and work ethic helped the nation not only recover but also outpace many global powers within decades.

This video answers:
How did Japan recover so fast after WWII?
What role did the Korean War play in Japan’s rise?
How did the US Occupation reforms change Japan forever?
What cultural factors drove Japan’s success story?

Research, Script & Production: Abhishek Kumar
Cinematography: Aakash Gautam
Editing & Motion Graphics: Rajesh Saw

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#Japan #HistoryExplained #KoreanWar #USOccupation #WWIIHistory #RiseOfJapan #WorldHistory

44 Comments

  1. अनपढ़ भारत 1947 से लेकर अब तक गरीब है इसका मतलब बसपा के ब्रेव पंजाबी नेता कांशीराम जी ने कहा था कायर बंदर जात वानरों को देश चलाना नहीं आता, जे अब बिल्कुल सच है

  2. World ki kisi bhi country me jaa kar waha k logo k upar zulam karna,waha ka constitution ko badana aur waha k PM aur Precident ki fasi dena kya sahi hai?
    Wo bhi apane fayade k liye.
    Ye bhi to ek tarah dadagiri hai,gunda gardi hai.

  3. जब से दिव्यांशी जी ने लालनटॉप छोड़ा है। तब से हीं मैने वो चैनल देखना छोड़ दिया है।

  4. 10 reasons to watch curistaan
    1)…..

    2) divyanshi
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    9) divyanshi
    10) divyanshi.

  5. itna bhi emotional drama karne ki zarurat nahi hai. Japan sabse kroortawadi desh thaa WW2 ke waqt par media kabhi yeh sab dikhata nahi hai. Germany toh yu hee badnaam hai asli kaand toh Japan ke log kar rahe they. Infact USA se japan pe atom bomb gira ke bohot accha kiya. Japanese logo ka saara ghamand tod diya America ne.

  6. वैसे एक बात तो हैं कि लल्लनटॉप को लोग छोड़ क्यों देते हैं ??

  7. Please read the book "Yatharth Geeta" once in life, it's available for free in 29 languages……!!!✨📚

    It's by "Shri Swami Adgadanand Ji Maharaj" and it explains some of the universe's biggest secrets in a really easy way. Seriously, everyone should read it, no matter what they believe or which religion they follow……!!!😊

    This is a highly significant work👍💫💯